Lalita Vimee

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इकदास्तां ,भाग=3

 वही रिक्शा जो उसे  छोड़ कर जाने ही वाला था, मुड़ कर वापिस भागा आया। मदद ,मदद की आवाज़ से दो चार लोग और इकठ्ठा हो गए थे।किसी ने उसे बेहोशी की हालत में भी पहचान लिया था।


अरे ये तो सामने वाले घर की चन्द्रा चाची  का बेटा है,विजय।


एक लड़का जाकर घर के अंदर बता आया था।घर से जैसे एक भीड़ ही भागी आयी थी बाहर सड़क पर।रिक्शे वाला विजय के पैरों पर मालिश कर रहा था।कोई उसके हाथ मल रहा था,पर उसे कोई चेत नहीं था। उसके मुँह से सफेद झाग जैसा भी कुछ निकल रहा था।वहीं सड़क से थोड़ी दूर गली के सामने ही चारपाई पर लिटा दिया था विजय को।डाक्टर की दूकान चंद कदम ही दूर थी।वो भी पहूँच गया था।उसने विजय के भाई को बता दिया था कि शराब तो पी ही रखी है,इन्होंने, गरमी भी है, पर मुझे ये किसी मानसिक परेशानी में लगते हैं। ठंडे पानी से या डाक्टर के इंजेक्शन  से, पर आधे घंटे में ही विजय को  होश आ गया था।


रिक्शा वाला जब तक वहीं बैठा रहा था।बहुत परेशान हो गया था वो भी ,कि मेरी रिक्शा से तो ठीक ठाक उतरा है ये बंदा।पैसे देकर, शुक्रिया चाचा भी बोला है,और एकदम  से फिर पता नहीं क्या हुआ कि नीचे ही गिर पड़ा। 


 विजय को उसका भाई सहारा देकर घर के अंदर ले गया था। लोगों की भीड़ छट रही थी। लोग दबी जुबान में अजीब सी बातें कर रहे थे। 


अरे पी रखी थी,शराब के कारण गरमी सिर में चढ़ गई।


बहुत शरीफ   मेहनतीऔर बुद्धि मान लड़का है ये चन्द्रा बहनजी का।पता नहीं कैसी किस्मत है,शादी को सात साल हो गए हैं ,पर बीवी  मायके बैठी है।


अरे वो क्या अपनी मर्जी से बैठी है बेचारी, यही रख के राजी नहीं है।


वो तो बहुत शरीफ और अच्छे खानदान की लड़की है, पढ़ी लिखी भी है।


अरे ये चन्द्रा भी कम नहीं है,बाकी बेटे तो अपना घरबार बसा कर अलग हो गए। कहते हैं इसकी पंसद से शादी नहीं होने दी थी।


तभी एक कुछ सयाना सा बंदा  बोल उठा,अरे छोड़ो भ ई  जितनें मुँह उतनी बातें।जिस तन लागे सो तन जाने।उस के इन दो मुहावरों ने जैसे भीड़ को  निश्ब्द और तीतर बीतर कर दिया था।


विजय उपर चारपाई पर खामोश लेटा हुआ था।किसी का कोई प्रश्न नहीं था,तो उसे जवाब भी नहीं देना था। तीन भाई यहीं आये हुए थे, माँ के पास अपने परिवार के साथ, वो सोच रहा था कि कल वापिस निकल जाऊँगा। यहाँ करना भी क्या है? माँ नीबूं पानी देने आई थी।


कैसी तबियत है विजय अब?


ठीक हूँ माँ। कोई काम  था जो तार भेजा था।


बिना काम के घर नहीं आना होता तेरे को, क्या हालत बना ली है अपनी।


और ये चक्कर क्यों आया तेरे को। पी रखी है ना।


अरे नहीं माँ तूं भी ना।गरमी से चक्कर आ गया होगा।


अच्छा क्या खायेगा ,बता बना देती हूँ। 


भूख नहीं है माँ, सोऊँगा अभी , थकान सी हो रखी है।


अच्छा ये नींबू पानी पी ले,  आराम मिलेगा।


बिना किसी प्रश्न के माँ चुपचाप चली गई थी नीचे।


उसने नींबू पानी पी लिया था। नींबू पानी पीने के बाद लगा कि उसे शायद इस की बहुत जरूरत थी। ये चक्कर उसे दूसरी बार आया था।शरीर की जान ही निकल जाती है जैसे बेजान सा हो जाता है, जिस्म,क ई बार तो यूं लगता है कि दिमाग़ बिल्कुल खाली हो गया है,कुछ याद ही रहा,चेतना शुन्य सा।  आज शनिवार है,क्यों न किसी न्यूरो वाले को दिखा लिया जाये। पर अभी तो शरीर में हिम्मत ही नहीं उठने की भी।


कुछ देर लेटने से ही नींद आ गई थी।जब आँख खुली तो  टाईम देखा,दोपहर के तीन बज चुके थे। उठ कर कपड़े ठीक किए थे और बाहर निकल गया था।घर में सब सो रहे थे शायद, या  फिर किसी का उस पर ध्यान ही नहीं था। माँ भी सो रही थी शायद। उसने देखा, सामने पेड़ की छाव में एक रिक्शा वाला , अपने रिक्शे रहा था ।एक बार तो मन हुआ कि इसे सोने ही देता हूँ,, क्यों नींद खराब की इसकी  ,पर तबियत थी कि पैदल चलने की हिम्मत ही न हीं हो रही थी।


चाचा, उसने रिक्शे वाले के पास जाकर बोला था।


हम्म, वह एकदम खड़ा होगया था।


कहाँ चलना है साहब?


उसकी बताई जगह पर चल पड़ा था रिक्शे वाला।


विजय सोच रहाथा, जब कोई काम ही नहीं था,तो माँ ने उसे यहाँ बुलाया ही क्यों था।मैं क्या करूंगा यहाँ रहकर, मुझे तो  वैसे भी तन्हा रहने ही अच्छा लगता है। ये माँ भी ना।


तभी एकाएक रिक्शा रूक गया था।सामने ही न्यूरो विशेषज्ञ का क्लीनिक था।


उसने जाकर अपनी समस्या बताई तो चैक अप और टैस्ट रिपोर्ट की बिनाह पर डाक्टर ने उसे पन्द्रह दिन की दवाई दी थी। शराब आदि सब बंद करने को बोला था।


वो बाहर निकला तो वही रिक्शे वाला क्लीनिक के बाहर ऊंघ रहा था।


विजय ने सोचा क्यों न पहले इस सामने चाय की दुकान से चाय पी जाये, एकाध बिस्किट के  साथ। उसने अपने लिएचाय तो बोली ही साथ ही रिक्शा वाले के लिए भी चाय और बिस्किट भेज दिया।


रिक्शे वाला नींद से जागा तो सामने चाय देखकर हैरान रह गया था।


मैने तो नहीं बोली भाई।


औ पी ले चाचा मैंने भेजी है।


साहब आप ने,रिक्शे वाले के हाथ जुड़ गए थे। 


हाँ चाचा नींद खोल लेचाय पीकर फिर मेरे को छोड आना।


जी मालकों जरूर जी जरूर।


चाय पीने से पहले ही एक गोली खा ली थी उसने। चाय पीकर वो वापिस घर की तरफ चल पड़ा था।


घर पहुँँच कर रिक्शे वाले को पैसे देने लगा तो उसने मनाकर दिया था।जबरदस्ती से उसे पैसे पकड़ा कर  वो आँगनसे  सटी सीढिय़ों से छत की तरफ चला गया था।ऊपर पहुँचा तो हल्की चूड़ियों की खनखनाहट ने उसके कदमों को रोक दिया था।


आजाओ अंदर देवरजी तुम्हारी ही बीवी है यहाँ, कोई गैर नही।


जी भाभी आता हूँ, बैठें आप लोग।


वह वहीं छत के आँगन में खड़ा था,उसे जैसे फिर चक्कर आने को हुआ था,सामने पड़ी चारपाई पर ही बैठ गया था।तभी नीचे से भाई और माँ उपर ही आ गए थे।


बिना बताये कहाँ चला गया था विजय, कितनी चिन्ता हो गई थी हमें। 


बस यहीं डाक्टर के पास गया था भाई साहब, सोचा चैक करवा लूं,कहीं कोई ज्यादा समस्या तो नहीं।


ठीक किया भाई, ये भी जरूरी था।क्या बताया डाक्टर साहब ने।


कुछ खास नहीं, पंद्रह दिन की दवा दी है।कुछ टैस्ट किए हैं,जो सामान्य ही हैं।


एक तो तूं फिक्र न किया कर बेटा, हर टाईम चुप चुप रहेगा।ये कोई अच्छी बात नहीं है,सब से हँसा बोला कर। चल  ले चाय पी ले,,माँ ने केतली से चाय डाली थी।


माँ मैं तो अभी बाहर से चाय पीकर ही आया हूँ,डाक्टर के पास से निकला तो थोड़ी भूख सी महसूस हुई तो पास की दुकान से चाय और बिस्किट ले लिए।


 रोटी तो खाई नहीं सुबह से,भूख तो लगनी ही थी।अभी रोटी बनाती हूँ तेरे लिए, तेरी पंसद की बेसन की सब्जी बनाई है,और करेले भी बनाये हैं।


अभी भूख नहीं है माँ,बाद में देखेंगे।


विजय


जी भाई साहब, उसकी नजरे झुकी ही थी।


बहू को ले आया हूँ, अब तूं भी अपना घर बसा ले,वीर सब के बराबर का हो जा।  बहुत अच्छे परिवार से वास्ता पड़ा है अपना, बिना किसी शिकवे के तुरंत साथ भेज दिया। मैं नहीं चाहूँगा कि तूं  अब मुझे भी रूसवा करे।साथ ले जा बहू को जो पैसे चाहिए मुझसे ले ले भाई। बड़े भाई  जसमीत की आँखें भर आई थी।


माँ की भी आँखें नम थी। विजय खामोश था,बस उसका कलेजा बहुत दर्दनाक रूदन कर रहा था।उसे वहाँ बैठना मुश्किल हो रहा था। पर वहाँ से उठना और भी मुश्किल था शायद। 


काश प्रीत तुम इस वक्त यहाँ होती तो मेरे सामने ये समस्या ही नहीं होती। वो अंदर ही अंदर सोच रहा था।


चल बड़ी बहू बच्चों को भी चाय दूध दे दे।उठ गए हैं सोकर।


भाई जसमीत चाय पीते ही नीचे चला गया था।


विजय, रोटी खाने का मन होते ही आवाज़ दे देना।


माँ और भाभी भी नीचे चली गई थी।


विजय वहीं चारपाई पर अधलेटा सा रहा था। अंदर से भी कोई हलचल नहीं थी। पूरी छत और दोनों कमरों ने जैसे सन्नाटा सा औढ़ा हुआ था।बहुत देर हो गई थी।  तभी अंदर से  किसी के बाहर आने की आहट हुई थी।


नमस्ते जी। दो हाथ जुड़े हुए थे।


एकदम से चौंक कर उठ गया था विजय ,दोनों हाथ जुड़ गए थे उसके भी।


आपकी तबियत ठीक नहीं है क्या? भाभी बता रही थी चक्कर आ गया था।


जी अब ठीक हूँ।


लगता है भाई साहब आपसे बिना सहमति के ही ले आये हैं मुझे। खैर आप परेशान न हों,आप कहेंगे तो मैं फिर चली जाऊँगी। 


विजय खामोश ही बैठा था। वो भी चारपाई के पास नीचे  एक पड़ी एक पीढ़ी पर ही बैठ गई थी। खामोशी की चद्दर दोनों ने ओढ़ी हुई थी। संध्या रानी  ने भी  सितारे सजी सुरमई ओढ़नी ओढ़ ली थी।बहुत प्यारी लग रही थी संध्या ,सामने वाले मंदिर से घंटियों व आरती की आवाज़ें आ रही थी। विजय ने भी जेब से सिगरेट निकाल कर लगा थी ,उसकी सुलगती सिगरेट की मंद टिमटिमाहट से  रजनी को शाम की दीये बती सा भान हो रहा था।छत की खामोशी में सिगरेट के धुएं ने भी अपनी जगहं बना ली थी।


क्रमशः


कहानी, इक दास्तां ।।


लेखिका, ललिता विम्मी
भिवानी, हरियाणा


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6 Comments

Seema Priyadarshini sahay

06-Dec-2021 05:55 PM

बहुत खूबसूरत

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Chirag chirag

02-Dec-2021 06:37 PM

Nice owned mam

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Khan sss

29-Nov-2021 07:15 PM

Good

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